रायसेन के बाड़ी में भी है हिंगलाज देवी का उप शक्तिपीठ

प्राचीन उपशक्तिपीठ मां हिंगलाज का जानिए इतिहास,
अग्निरूप में साक्षात दर्शन कर वैष्णव सन्त भगवान दास जी लाये थे मातारानी हिंगलाज को

प्रकाश जैन बाड़ी।
चार माह की घोर तपस्या के उपरांत घनघोर वन में हुए थे अग्नि रूप में दर्शन।
नवरात्रि देवी मां की उपासना का पावन पर्व होता है और ऐंसा तो हो नही सकता कि नवरात्रि आये और किसी की जुंबा पर मातारानी हिंगलाज देवी का नाम न आये तो चलिए हम भी आज आप सभी सुधि पाठकों को सती की मृत देह के विभिन्न अंग गिरने से विख्यात हुई 51 शक्तिपीठों में से प्रमुखतम शक्तिपीठ आग्नेय मां हिंगलाज तीर्थ से जुड़ा रोचक इतिहास और किस तरह अपनी घोर तपस्या से अग्नि रूप में दर्शन कर मां हिंगलाज को वैष्णव सन्त महंत भगवान दास जी बाड़ी कलां जिला रायसेन मध्यप्रदेश लेकर आये और मठ स्थापित किया उसी का रोचक इतिहास श्री खाकी अखाड़ा रामजानकी मन्दिर के अंतिम महामंडलेश्वर साकेतवासी तुलसीदास जी की कलम से लिखा इतिहास बताते हैं इसके पहले यह जानना जरूरी है कि उन्होंने कब और किन परिस्थियों में इतिहास लिखकर अपने जीवंत काल मे बाड़ी के तत्कालीन प्रेस क्लब उपाध्यक्ष को दिया था।
यह उन दिनों की बात है जब श्री श्री 1008 श्री रामजानकी खाकी खड़ा मन्दिर की महमण्डलेश्वर गादी पर अंतिम महमंडलेश्वर तुलसीदास जी विराजमान थे भोपाल के कमाली मन्दिर सहित 105 मंदिरों का संचालन बाड़ी महामंडलेश्वर के अधीन होता था

रायसेन जिले के बाड़ी में विराजमान हिंगलाज माता
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साकेतवासी तुलसीदासजी का गुरुस्थान बाड़ी बकतरा दोनो था एक दिन ऐंसी खबर सुनने में आई कि पाकिस्तान के ब्लूचिस्तान स्थित आग्नेय मां हिंगलाज तीर्थ के दर्शनों पर पाकिस्तान के अल्पसंख्यक यानी हिन्दू ओर भारत के बहुसंख्यक यानी हिन्दुओ के दर्शनों पर पाकिस्तान सरकार ने रोक लगा दी है भारतीयों को मां हिंगलाज के दर्शन होते रहें इसके लिए पँचधारा गुफा में मां हिंगलाज की स्थापना ओर हिंगलाज सेना का गठन किया जा रहा था लेकिन उस समय ऐंसी बाते सामने आई कि भारत मे स्थान नही है जबकि भारत मे मध्यप्रदेश के रायसेब जिले के बाड़ी कलां में मां हिंगलाज का प्राचीन उपशक्तिपीठ मौजूद था इसी सत्य के साथ हिंगलाज के इतिहास का सच जानने और जिस ताम्रपत्र पर इतिहास लिखा है उसे प्राप्त करने बाड़ी प्रेस क्लब के तत्कालीन अध्य्क्ष महेंद्र शर्मा के परम मित्र तत्कालीन प्रेस क्लब उपाध्यक्ष सुरेन्द्र जैन अपने साथी अनिल गुप्ता के साथ बाड़ी से बकतरा पहुचे ओर उन्होंने महामंडलेश्वर तुलसीदास जी से चर्चा की हिंगलाज के इतिहास का ताम्रपत्र जो कि खाकी अखाड़ा मन्दिर की कठुआ की संदूक में होने का सुना था वह मांगा ताकि सबको यह बताया जा सके की भारत मे भी बाड़ी में मां हिंगलाज का प्राचीन उपशक्तिपीठ मौजूद है जिसकी स्थापना सिद्धि प्राप्त सन्त भगवानदास जी ने घोर तप से अग्निरूप में दर्शन कर की थी लेकिन काफी खोजने के बाद भी वह ताम्रपत्र नही मिला जिसका जिक्र बुजुर्ग किया करते थे तुलसीदासजी को कठुआ की पेटी में अरबी फारसी भाषा मे लिखे प्राचीन ऐतिहासिक दस्तावेज तो मिले लेकिन ताम्रपत्र पर लिखा मां हिंगलाज का इतिहास नही मिला तब उन्होंने अखबार के संवाद पत्र के सात पेजो के पृष्ठ भाग में अपने हाथों से मां हिंगलाज देवी का रोचक इतिहास लिपिबद्ध कर तत्कालीन प्रेस क्लब उपाध्यक्ष सुरेन्द्र जैन को दिया अंतिम महामंडलेश्वर तुलसीदास जी की कलम से लिखा गया वह इतिहास जो हमे अपने नगर की प्राचीन मां हिंगलाज देवी उपशक्तिपीठ के बाड़ी तक अग्निरूप में लाने का सच से बताता है जैंसा उन्होंने अपने हाथों से लिखा बैंसा ही इतिहास प्रस्तुत है-

बाड़ी में स्थित हिंगलाज माता का मंदिर

साकेतवासी तुलसीदासजी की कलम से लिखा गया माता रानी हिंगलाज का प्राचीन इतिहास
परमात्मने नमः
हिंगलाज जगदंबा माँ पूरे मन अभिलाष।
ब्रह्मरंध्र से प्रगट हैं प्रथम पीठ आभाष।।
संत सिद्ध अरु वृद्ध जन संबंधित जो श्रेस्ठ ।
सुना जो गुरु सो अन्यसे वर्णों वही यथेष्ठ।।
श्री भगवान दास मेरे पूर्वज गुरुजनों ।
परम वैष्णव हिंगलाज को।महाशक्ति हैं अवलंबन जगती जहाज को।।
श्री खाकी जी धन्य नगर बाड़ी को कीन्हो।
श्रद्धा वानो को जीवन का संबल दीन्हो।।
सिद्धि प्राप्त सन्तो ने असंभव को संभव करके दिखाया है बाड़ी जिला रायसेन मध्यप्रदेश में सिद्धि प्राप्त सन्तो की परंपरा पीढ़ियों तक रही है रामभक्ति शाखा के विरक्त सन्त श्री श्री अनन्त श्री स्वामी भक्त रामदास जी परम सन्त थे जिन्होंने अपने सिद्धि युक्त चमत्कार से भोपाल के शासको को आश्चर्य चकित किया हैं उन्हीं श्री स्वामी भक्त रामदास जी के प्रिय कृपा पात्र शिष्य स्वामी श्री अनंत भगवान दास जी महाराज जिन्होंने भगवती माँ हिंगलाज को अपनी साधन से प्रत्यक्ष दर्शन कर जीवन कृतार्थ किया बाड़ी का इतिहास बहुत विस्तृत हैं पर यहां हम जगदंबा श्री हिंगलाज की अनपायनी कृपा प्राप्ति का उल्लेख करना ही अपना अभीष्ट मानते हैं।
श्री श्री स्वामी भगवान दास जी महाराज जिनका थोड़ा संकेत ऊपर दिया हैं ये बाड़ी परंपरा में द्वितीय पीढ़ी के सिद्धसंत रहे आप विरक्त दीक्षा में दीक्षित होते हुए भी बंसानुगत धार्मिक मान्यताओं से विरक्त नही हो सके आपके परिवार में पीढ़ियों से जगदंबा श्री हिंगलाज की उपासना होती थी इनके स्वस्थ कोरे ह्रदय पर सर्वप्रथम माँ हिंगलाज का प्रभाव पड़ा इसी कारण संत दीक्षा के उपरांत भी आपके पूर्व संस्कार आपको प्रभावित करते रहे गुरु द्वारा राम मंच एवं वैष्णव ग्रंथो का पठन पाठन का उपदेश दिया गया पूर्व संस्कारो ने इनका चिंतन स्थिर नही होने दिया और एक दिन रात्रि को स्वप्न में भगवती ने इन्हें आज्ञा दी पर आज्ञा के अतिरिक्त्त और कुछ नही सुना मात्र आज्ञा शब्द ही स्वामी जी सुन पाये आज्ञा केवल आज्ञा यह इनकी रट बन गई इससे इनमें एक प्रकार की विक्षिप्त भाव की परिणति सी हो गई पर यथार्थ में स्वामी जी विक्षिप्त नही थे उन्हें अधूरी आज्ञा का आक्षेप था दिन भर इनका मन भगवती की आज्ञा क्या है इसका विचार करने में ही तल्लीन रहने लगा स्थानीय प्रचारकों को न तो कोई आदेश निर्देश करते ना किसी से कुछ बात कहते इस प्रकार की अवस्था मे बहुत दिन बीत गए एक दिन रात्रि को सोने के पश्चात प्रातः काल उठे और जिसे शिष्य रूप में स्वीकार किया था उसको कहा हम तीर्थ करने जावेंगे शिष्य ने प्रार्थना की कि इस अवस्था मे आप कैसे जाएंगे स्थानीय सभी संत महात्माओं ने भी कहा कि नही जाना चाहिए पर स्वामी जी को मात्र भगवती हिंगलाज की प्रेरणा हो रही थी उन्होंने तीर्थ जाने की जिद नही छोड़ी तब स्थानीय संतो ने कहा फिर आप अपने कृपा पात्र शिष्य को साथ ले लें इस बात को स्वामी जी ने स्वीकार कर लिया ओर स्तानीय कार्य को देखने उन्होंने दो वृद्ध संतो को नियुक्त किया और स्वामी जी शिष्य को साथ लेकर चल दिये चल तो दिए पर कुछ कहते नही की कहा जाना है किस ओर जाना है ना तो निश्चित कोई दिशा हैं ना ही कोई उद्देश्य ही मात्र दिनभर चलना फिर वह समय भी कौनसा था जब न तो कोई ट्रक मोटर का साधन न स्वामी बैल घोड़ा आदि जीव धारी वाहन पर सवारी करते थे पांव पांव चलना ही अपना अभीष्ट मानते थे ।
शिष्य में गुरु भक्ति तो थी पर कष्ट सहन करने की क्षमता का अभाव था इस कारण अधिक चलने पर शिष्य की दशा बड़ी दयनीय हो जाती थी उस हताश एवं निराश अवस्था मे भी शिष्य गुरु आज्ञा का पालन करना अपना परम कर्तव्य मानता था स्वामी जब ये देख लेते थे कि अब चलना या परिश्रम करना शिष्य की सामर्थ से बाहर हैं तब कही न कही विश्राम करने की आज्ञा देते थे भोजन आदि का कोई निश्चित उपाय नही था कभी कभी फल आदि खाकर भी रहना पड़ता था और कोई श्रद्धावान भक्त के मिल जाने पर स्व पाकी होने के नाते अपने हाथ से भगवान के निमित्त बना हुआ भोजन भगवान को भोग लगाने के उपरांत प्रसाद रूप में स्वयं ग्रहण करते थे यात्रा लंबी थी चार मास व्यतीत हो गये चलते -चलते पर यात्रा कितनी रही कोई पता नही पर जब ओर आगे बढ़ते हैं तो भयानक निर्जन वन आ जाता हैं उसमें चलने पर भी स्वामी बड़े निर्भीक हैं शिष्य को थकान हो जाती तब कही बैठ कर उसकी प्रतीक्षा करते प्रायः शिष्य मील डेड मील पीछे ही रहता पुनः आने पर फिर चलते हैं एक दिन स्वामी जी माँ भगवती के चिंतन में निमग्न होकर कुछ अधिक आगे निकल गए शिष्य को अचानक कष्ट हो गया वह अचेत अवस्था मे जहाँ था वही गिर गया स्वामी जी उस घोर वन में भावावेश में चल रहे थे उसी समय सामने आती हुई पाँच वर्ष की आयू की बालिका को देखा स्वामी जी को आश्चर्य हुआ कि इतनी छोटी बालिका इस भयानक वन में कैसे आई स्वामी जी ऐसा सोच रहे थे तभी बालिका ने प्रश्न किया बाबा कहा जा रहे स्वामी जी अब तो स्तब्ध रह गए और थोड़ा विराम लेकर बोले हम तो क्या बताये कहा जा रहे पर देवी आपको यहां कौन लाया इस पर उस कन्या देवी स्वरूपा बालिका ने कहा कौन लाया मेरे लिए आपका अभीष्ट लाया इतना सुनते ही स्वामी जी का ह्रदय भाव विभोर हो गया और मुख से निकला विश्वास इस विश्वास वाली बात सुनते ही अल्प अवस्था की बालिका के शरीर से अग्नि ज्वाला प्रस्फुटित होती है जो बांसों के आकार में ऊंची होती जाती है स्वामी जी हाथ जोड़े मूक बने खड़े हैं ज्वाला से शब्द निकलता है तुम्हारी भक्ति पूर्ण हुई मेरी अग्नि प्राप्त करलो ले जाओ और अपने स्थान पर पहुचकर इस अग्नि को विधिवत पूजन करके स्थापित कर देना ध्यान रहे अपने ईस्ट के साथ मेरी मान्यता हो जावे लौट जावो(अंतरध्यान),
गुरु परंपरा सर्व श्रेष्ठ होती हैं स्वामी जी कमंडल में अग्नि स्थापित करके लौटे तब शिष्य का धयान आया सोचा अवश्य उसे कुछ हो गया अन्यथा वह मेरा साथ नही छोड़ता स्वामी जी जब पीछे लौटकर आगे बढ़े तो थोड़ा चलने पर शिष्य बड़ी कष्ट प्रद अवस्था मे पड़ा था स्वामी जी ने जाकर मस्तक पर हाथ रखा और कहा कि तुम्हे कैसा कष्ट इन शब्दों ने शिष्य में आरोग्य चेतना और स्फूर्ति का संचार कर दिया शिष्य उठकर स्वामी जी को शाष्टांग दंडवत करता है स्वामी मंगलमय शुभ आशीष देकर प्रशन्नता व्यक्त करते हैं।
तदुपरांत शिष्य सहित लौट कर स्थान पर आते हैं और माँ हिंगलाज ज्योति से प्राप्त अग्नि को एक पक्की धूनी बनाकर स्थापित कर विधिवत पूजन किया और धूनी को चूना कंक्रीट की मोटी तह से बन्द कर दिया।
छह महीने बाद देवी मठ का निर्माण कराया प्रतिमा लाकर प्रतिष्ठा कराई उसी अवसर पर धूनी को खोला तो अग्नि अपने उसी स्वरूप में पाई गई जैसा स्थापित किया गया था। पीढ़ियों की अग्नि अब स्थानांतर कर देवी मठ में अखंड ज्योति के रूप में है।
अंतिम महामंडलेश्वर महंत तलसीदासजी अपनी कलम से हिंगलाज मैया का रोचक इत्तिहास लिपिबद्ध करते हुए अंत मे लिखते हैं कि इस प्रसंग को पूज्य मेरे उद्धारक उपदेशक श्री श्री अनन्त श्री महा मंडलेश्वर परम वैष्णव भव्य मूर्ति गुरुदेव श्री स्वामी बनवारी दास जी ने एवं पूज्य बूढ़े पुजारी जी जिन्होंने तीन पीढ़ी तक पूजा की जिनको तीन पीढ़ी के महंतों ने सम्मानित किया उन्होंने एवं कुछ अन्य वयोवृद्ध सन्तो ने कथन सुनाया उसी आधर पर इस पवित्र कथा को मैने लिति वद्ध किया ।
तुलसीदासजी लिखते हैं कि आज भी भगवती माँ हिंगलाज अभीष्ट सिद्धि दायनी सह्रदय प्रशन्न होकर अपने भक्त के दुःख को दूर करती हैं हमारा विश्वास है मानवी जगत का ऐसा कोई भी दुःख नही जो माँ हिंगलाज की शरण में आने पर दूर नही हो ।
गीता में कहा है”देवा न भाव यता नैन ते देवा भाव यन्तु वा”देव तो भाव के इछुक हैं श्रद्धा भाव पूजन अर्चन करने से देवी देवता प्रशन्न होते हैं। मातारानी हिंगलाज के इतिहास की गाथा अपने जीवित रहते में बाड़ी कला स्थित खाकी संप्रदाय के महान तपस्वी सन्त श्री राम जानकी खाकी अखाड़ा मंदिर के अंतिम महा मंडेश्वर महंत तुलसी दास जी ने बाड़ी के तत्कालीन प्रेस क्लब उपाध्यक्ष सुरेन्द्र जैन को लिख कर दिया था आज वह साकेतवासी हैं लेकिन उनके हाथों का लिखा हिंगलाज उपसक्ति पीठ का इत्तिहास उन्हें शब्दो के रूप में जीवन्त बनाये हुए हैं।

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