
मुकेश अवस्थी , होशंगाबाद।
क्या आप जानते है कि 600 साल पूर्व 1418में गुरूनानक देव होशंगाबाद में 7दिन रूके थे और राजा होशंगाशाह उनका शिष्य बन गया तथा जहॉ रूके थे उस कुटिया में गुरु नानक देव द्वारा स्वर्ण स्याही से लिखी गई ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ की पोथी लिखी गयी ।
ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से प्राचीन, नर्मदापुर तथा आधुनिक काल में होशंगाबाद जिले का महत्वपूर्ण स्थान रहा है । पुण्य सलिला मॉ नर्मदा की महिमा न्यारी है तभी यहॉ साम्प्रदायिक सदभाव की गौरवमयी मिसालें देखने को मिलती है। सिखों के आदिगुरू श्री गुरूनानक देव भी नर्मदा के महात्म को जानते थे तभी वे अपनी दूसरी यात्रा के समय जीवों का उद्धार करते हुये बेटमा, इंदौर, भोपाल होते हुये होशंगाबाद आये और यहॉ मंगलवाराघाट स्थित एक छोटी से कमरे में 7 दिन तक रूके थे तब उनका यह 73 वां पड़ाव था तब होशंगाबाद के राजा होशंगशाह थे। गुरूनानक देव जी होशंगाबाद नर्मदातट पर रूकने के बाद नरसिंहपुर ,जबलपुर में पड़ाव डालते हुये दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल गये थे। उक्त यात्रा से पूर्व जब वे यहॉ रूके थे तब उनके द्वारा स्वलिखित गुरूग्रंथ साहिब पोथी लिखी जिसे वे यही छोडकर चले गये थे।
गुरूनानकदेव 1418 ईसवी में होशंगाबाद आये तब उनके आने की खबर राजा होशंगशाह को लगी तब राजा उनसे मिले और उनसे राजा, फकीर और मनुष्य का भेद जानने की इच्छा व्यक्त की गयी। गुरूनानक देव ने राजा से कमर में कोपिन (कमरकस्सा) बांधने को कहा, राजा ने गुरूनानकदेव जी की कमर पर कोपिन बांधा तो उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही क्योंकि कोपिन में गठान तो बंध गयी पर कोपिन में कमर नहीं बंधी। राजा ने तीन बार कोशिश कर गुरूनानक देव की कमर में कोपिन बांधने का प्रयास किया लेकिन वे कोपिन नहीं बांध सके और आश्चर्य व चमत्कार से भरे राजा होशंगशाह गुरूनानक देव के चरणों में गिर गया ओर बोला मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर ले जिसे अपनी करूणा के कारण गुरूनानक ने स्वीकार कर राजा होशंगशाह को अपना शिष्य बना लिया। 17 साल बाद 1435 में राजा होशंगशाह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र गजनी खान यहां का उत्तराधिकारी हो गया था।
होशंगाबाद में जब गुरूनानक देव आये थे तब वर्ष 1418 चल रहा था। नर्मदा के प्रति उनका आगाध्य आध्यात्मिक प्रेम था इसलिये वे उसके तट पर रूके और उन्होंने कीरतपुर पंजाब में लिखना शुरू की श्रीगुरूग्रंथसाहिब पोथी लेखन जो अपनी यात्रा में लिखते रहे वह स्याही के अभाव में स्वर्ण स्याही से पोथी लिखना शुरू की जो आज भी इस गुरूद्वारे में दर्शनार्थ रखी है और तब से वर्ष 2018 में इस ऐतिहासिक पड़ाव का 600 वां साल पूरा होने जा रहा है। चार पांच दशक पूर्व गुरूनानक देव के द्वारा जिस छोटी सी कोठरी मे अपना समय बिताकर पोथी का लेखन किया गया उस स्थान पर दर्शन करने के लिये अनेक स्थानों से श्रद्धालुओं की भीड जुडती थी परन्तु अब इस नयी पीढी को इसका पता नहीं इसलिये वे इस पावन स्थान के दर्शन करने से चूक गयी है। दूसरा बडा कारण जिले का पुरातत्व विभाग एवं जिला प्रशासन है जिसने अपने नगर की इस अनूंठी धरोहर की जानकारी से वंचित रखा हुआ है अलबत्ता सिख सम्प्रदाय के लोग गुरूनानक देव की जयंती के 4 दिन पूर्व से उत्सव मनाकर शहर में जुलुस निकालने की परम्परा का निर्वहन करते आ रहे है जो 23 नवम्बर को उनकी होने वाली गुरूनानक जयंती के पूर्व देखने को मिली।
नानकदेव जी की हस्तलिखित इस श्रीगुरूग्रंथ साहिब पोथी को पिछले 400 सालों से बनापुरा का एक सिख परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी दर्शन कर पाठ करने के साथ इस अमूल्य धरोहर को सुरक्षित रखते आ रहा है था और जिसकी जानकारी स्थानीय नागरिकों को थी किन्तु सिख समाज को नहीं थी जैसे ही एक स्थानीय सिख कुन्दनसिंह को जानकारी हुई तो उन्होंने गुरूनानक देव की हस्तलिखित इस धरोहर को अपने पास सुरक्षित रख लिया और 14 अप्रेल 1975 को उसकी पवित्र अर्चना की और आमला से आये सरदार सूरतसिंह ने गुरूग्रंथ साहिब को पहली माला अर्पित की तब कंुदरसिंह चडडा और आईएस लाम्बा उस समय उपस्थित थे। तभी से गुरूग्रंथसाहिब को उसी स्थान पर जहॉ नानकजी ठहरे थे स्थापित कर दिया गया और उसके बाद यहॉ प्रतिदिन नियमित पूजा अर्चना शुरू हो गयी और शब्द कीर्तन एवं लंगर इत्यादि आयोजन शुरू हुये जो क्रम अब तक जारी है।
साभार ( हिंदुस्तान समाचार)
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