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भाद्र मास की अमावस्या को मानाये जाने वाले सनातनी पर्व का अपना ही महत्व है, इस दिन हिन्दु समुदाय खास कर उत्तर भारत, मध्य भारत, और छत्तीसगढ और बिहार राज्यों में इस पर्व को पारंपरिक संस्कृति को जीवंत रखते हुये मनाये जाने की परंपरा है. इस दिन मूलत किसान अपने बैलो को तैयार कर उनकी पूजा करते है, पोला पर्व के बार में मान्यता है कि किसान खरीफ की फसल को बढती हुई देखकर खुशियां मनाते है और बैलो की पूजन कर उन्हे आगे की खेती के लिये तैयार करते है. इस दिन किसानो को अपने खेतो में जाने की मनाही होती है. बता दें कि ग्रामीण क्षेञो में किसान अपने बैलो की पूजन करते है तो शहरी क्षेञ के लोग संस्कृति को जीवंत रखने प्रतीक स्वरूप मिटटी व लकडी के बैलो की पूजन करते है.
बैलो के श्रृँगार व गर्भ पूजन का पर्व-पोला
किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति से होती है, जिससे आने वाली पीडिया उनका अनुसरण करते हुये उनका पालन कर परंपराओ को निर्वहान करती है, पोला पर्व कृषि से जुडा माना गया है , जिसके चलते भारत के छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश , उत्तरप्रदेश, बिहार आदि राज्यो में साल भर खेती कर अपना जीवन यापन करने वाले किसान पौराणिक और इतिहासपरक पर्व को हर्ष उल्लास के साथ मनाकर बैलो का पूजन करते है। ऐसी मान्यता भी है कि राजस्थान के खनाबदोष जीवन यापन करने वालो सहित बंजारा समुदाय जो कि एक स्थान पर नही रहता, बारिश बंद होने के बाद अपने बैलो को तैयार कर ऋतु परिवर्तन होते हुए अगले गंतव्य स्थान की ओर इसी दिन के बाद से होते है.
लोक पर्व पोला पर्व की कथा
भारत के सनातनी परंपराओ के अनुसार प्राचीन काल से ही हमारे देश के लोग कृषि पर आधारित रहकर गुजर बसर करते आ रहे है. जिसके चलते हमारे देश की संस्कृति में प्रकृति, पशु ओर पेड पौधो जीव जन्तुओ तक को आदर के भाव से पूजा जात है. देश के लोगो ने प्राचीन विरासत को संभाल कर रखा हुआ है.ऋतु परिर्वतन से जुडे कई पर्व हमारी प्राकृतिक आस्था को प्रदर्शित करते है, फसल लहलहाने के समय हरियाली, आदि आदि अवसरो व ऋतु परिवर्तन के समय को धार्मिक आस्था प्रकट कर पर्व-उत्सव व त्योहार के रूप मे मनाते हुए जनमानस मे एकता का संदेश देते है। अवसरो पर मेहमानों का आदर-सत्कार करने व तरह तरह के व्यंजन बनाने मे यहाँ की माताएँ माहिर है। जो हर पर्व -त्योहार मे अलग अलग तरह की पारंपरिक व्यंजन बनाती है।तथा आतिथ्य सत्कार करती है। यहाँ के रहवासी अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते है।इन्हीं पर्व-त्योहार की श्रृँखला मे एक महत्वपूर्ण त्योहार है पोला इसे बुदेलखंद में पोरा भी कहते है।
बैलो की पूजन कर मनाते है यह त्योहार- खेतो में जाने की रहती है मनाही.
भाद्रपद मास की अमावस्या तिथि को मनाया जाने वाला यह पोला त्योहार, खरीफ फसल के द्वितीय चरण का कार्य (निंदाई कोडाई ) पूरा हो जाने तथा फसलों के बढ़ने की खुशी मे किसानों द्वारा बैलो की पूजन कर कृतज्ञता दर्शाते हूए प्रेम भाव अर्पित करते हुए यह त्योहार मनाते है क्योंकि बैलो के सहयोग द्वारा ही खेती कार्य किया जाता है । पोला पर्व की पूर्व रात्रि को गर्भ पूजन किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन अन्न माता गर्भ धारण करती है। अर्थात धान के पौधों मे दुध भरता है। इसी कारण पोला के दिन किसी को भी खेतों मे जाने की अनुमति नही होती । इनका प्रसाद उसी स्थल पर ही ग्रहण किया जाता है घर ले जाने की मनाही रहती है। इस पूजन मे ऐसा व्यक्ति नही जा सकता जिसकी पत्नी गर्भवती हो। इस पूजन मे जाने वाला कोई भी व्यक्ति जुता-चप्पल पहन कर नही जाता फिर भी उसे काटा-कंकड नही चुभता या शारीरिक कष्ट नही होती ।
मिटटी के बैल या लकडी के बैलो का पूजन कर खिलौने के रूप बच्चो का मनोरंजन
अपने बेटों के लिए, कुम्हार द्वारा मिट्टी से बनाकर आग मे पकाये गये बैल या लकड़ी से बनाए बैल के पैरों मे चक्के लगाकर सुसज्जित करके तथा बेटियो के लिए रसोई घर मे उपयोग की जाने वाली छोटे छोटे मिट्टी के पके बर्तनो(चुकिया, जाता, पोरा आदि) को पूजा करके , बनाये हुए पारंपरिक पकवानो को भोग लगाने के बाद ये खिलौने खेलने व मनोरंजन के लिए बच्चों को देते है। इसके पीछे का तर्क यह है कि इन मिट्टी या लकड़ी के बने बैलो से खेलकर बेटे कृषि कार्य तथा बेटियाँ रसोईघर व गृहस्थी की संस्कृति व परंपरा को समझते हुए जीवन मे योगदान देंगे । इस तरह पूजा के बाद भोजन के समय गाँव के नाते-रिस्तेदारो, संबंधियो व पड़ोसियो को भी सम्मान पूर्वक आमंत्रित करते हुए एक दूसरे के घर जाकर भोजन करते है। जो कि छत्तीसगढ़ की संस्कृति-परंपरा मे आपसी भाईचारे व प्रेम को मजबूती प्रदान करता है।
श्रीकृष्ण से भी जुडी है कथा
पोला पर्व को लेकर कहा जाता है कि जब भगवान कृष्ण के अवतार लेने के बाद आकाशवाणी हुई कि कंस को मारने के लिए विष्णु भगवान ने अवतार लिया है तो कंस द्वारा अनेक राक्षसो को भेजकर श्रीकृष्ण को मारने भेजा गया था, लेकिन भगवान कृष्ण द्वारा सभी राक्षसो को वध कर दिया गया था, लेकिन भाद्र मास की अमावस्या के दिन कंस ने पोलासुर नामक एक राक्षक को श्रीकृष्ण को मारने भेजा तब श्रीकृष्ण द्वारा आज के दिन पोलासुर को वध कर दिया गया. तब से इस दिन को पोला पर्व के रूप में मनाया जाने लगा.
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