राकेश दुबे । वर्तमान माहौल में प्रतिपक्ष, स्वतंत्र चेता व्यक्तित्व, के साथ पक्ष के भी कुछ लोग गुपचुप रूप से यह कह रहे हैं कि देश में कुछ ठीक नहीं चल रहा | उनकी बात का स्वतंत्र आकलन करने पर साफ़ नजर आ रहा है कि “जो हो रहा है, उससे बेहतर होना चाहिए | भवन निर्माण और प्रतिमा भंजन की आदत से मुक्त होकर देश में नई भावना का संचार जरूरी है | यह बात अगर सरकार के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत है तो प्रतिपक्ष के लिए किसी नसीहत से कम नहीं है |
सर्व विदित है देश की सारी व्यवस्था के मूल मे संसद है| देश की राजनैतिक व्यवस्था को, या सरकार जिस तरह बनती, चलती उठती व गिरती भी है, उसे संसदीय लोकतंत्र कहा जाता है। कल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवीन संसद भवन की नींव रखी हैं।जरा विचार कीजिये, देश को आज संसद के नये भवन की जरूरत है या पूरे देश को नई भावना की |
नई संसद के शिलान्यास के साथ कुछ इतिहास | ब्रिटिश काल मे स्थापित संसद भवन की नींव प्रिंस आर्थर विलियम,डयूक ऑफ कनॉट द्वारा १०० वर्ष पूर्व १२ फरबरी,१९२१ को रखी गई। रिकार्ड छै वर्ष में निर्माण कार्य पूर्ण हुआ और १८ जनवरी १९२७ को ब्रिटिश हुकूमत के तत्कालीन वाइस राय लार्ड इरविन ने ऐतिहासिक संसद भवन का उद्घाटन किया। भवन की योजना एवं निर्माण वास्तुकार एडविन लुटियन्स और हर्बर्ट बेकर ने बनाई। इसी कारण दिल्ली लुटियंस की कह लाती है |गोलाकार गलियारों के कारण कभी इसे सर्कुलर हाउस भी कहा गया। वर्तमान लोकसभा में ५५० सदस्यों के बैठने की व्यवस्था है ।नए प्रस्तावित भवन में यह संख्या ८८८ रखी गई है।
हालांकि भारतीय संविधान में कहीं भी लोकसभा के लिए निम्न व राज्यसभा के लिए उच्च सदन का प्रयोग नहीं किया गया है। फिर भी बोलचाल की भाषा में इसे लोअर और अपर हाउस पुकारा जाता है |लोकसभा में जनता द्वारा सीधे चुने गए प्रतिनिधि होते हैं। लोकसभा की कार्यावधि ५ वर्ष है परंतु इसे समय से पूर्व भंग भी किया गया है। राज्यसभा एक स्थायी सदन है,इसमें सदस्यों का निर्वाचन/मनोनयन६ वर्ष के लिए होता है। एक तिहाई सदस्य हर दो वर्ष में सेवानिवृत होते रहते हैं। राज्यसभा में २५० सदस्यों के बैठने हेतु स्थान है। नए भवन में ३५० सदस्यों का प्रावधान रखा गया है। वर्तमान संसद भवन [दोनों सदन ] कई महत्वपूर्ण कानूनों के साक्षी रहा हैं,विभिन्न वगों के नागरिकों के लिए इनमे उनके प्रतिनिधियों के माध्यम से कानून बने हैं | दुर्भाग्य से इनमें कोई भी कानून सबको उस भावना में नहीं ला सका, जिसे भारतीयता कहा जा सकता है | इन सदनों से जो संदेश जाना था उसकी पहुँच की समग्रता में कहीं न कहीं कमी रही |
फिर इतिहास कुछ कहता है |१८५७ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद १८६१ में भारतीय कौंसिल बनी नियम बना जिसे भारतीय विधानमंडल का घोषणा पत्र कहा गया। इस दशक में भारत में राजनैतिक चेतना पनप चुकी थी।देश हितों के लिये राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष करने हेतु एक संगठन की जरूरत महसूस होने लगी १८८५ में ए. यू. ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। १९१९ में केंद्र में अनेक सुधार अधिनियम बने और केंद्र में विधान परिषद की जगह, द्विसदनीय विधानमंडल बनाया गया- राज्य परिषद व विधानसभा।भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ ने भारत की संविधान सभा को पूर्ण प्रभुसत्ता सम्पन्न निकाय घोषित किया। १४-१५ अगस्त १९४७ की मध्य रात्रि उस सभा ने शासन चलाने हेतु समस्त शक्तियां ग्रहण कर लीं। संविधान सभा को डॉ. राजेंद्रप्रसाद की अध्यक्षता में पृथक निकाय बनाया गया। १४ नवम्बर १९४८ को बी.आर.अम्बेडकर ने प्रारूप पेश किया जो२६ नवम्बर १९५० में प्रभावशील हुआ ।
उन ४१ बरस की तुलना में इन ७० बरस में देश में अपनेपन की पहले जैसी भावना नहीं दिख रही है | जिस तिरंगे पर हमारे पूर्वज मर मिटे थे उसका सरे आम निरादर जैसी घटनाये दिखती है | संविधान का निरादर इस हद तक है कि कोई भी उसे अध्य्यतन करने को तैयार नहीं है | हम अपनी पुरानी पीढ़ी के दोष और और अपनी तारीफ में मस्त हैं | इस माहौल में नये भवन नहीं, नई भावना की जरूरत है |
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है। आलेख और फोटो – साभार इंटरनेट
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