बढ़ता सोशल मीडिया और गिरता जा रहा पञकारिता का स्‍तर, परिणाम भयाभय हो सकते है.

मुकेश अवस्‍थी

देश में जब से इंटरनेट की स्‍पीड और सस्‍ती दरो पर डाटा प्‍लान आये है तब से सोशल मीडिया का दायरा बढ़ता जा रहा है, वही अब से कुछ ही सालो पूर्व तक आम जन जिस पञकारिता पर भरोसा कर कोई भी निर्णय लेने से नही चूकते थे वे अब पञकारिता के गिरते स्‍तर के चलते यह भी नही समझ पा रहे है कि सच क्‍या है और झूठ क्‍या है, इस दौर ने समाज को आइना दिखाने और सरकार को हमेशा निष्‍पक्ष प्रहरी बनकर रास्‍ता दिखाने वाले अखबार और इलेक्‍ट्रानिक चैनल कम ही बचे है.

    जी हां देश में 2014 के बाद से जिस तीव्र गति से इंटरनेट सेवाये शुरू हुई है इतना ही नही सस्‍ती दरो पर इंटरनेट प्‍लान देने की होड़ भी लगी है, उसके बाद से देश की पञकारिता का स्‍तर भी गिरता जा रहा है, अब हर कोई मीडियाकर्मी बनना चाहता है इतना ही नही आन लाइन न्‍यूज पोर्टल के साथ साथ यूटूयूब चैनल भी व्‍हाटसअप और अन्‍य सोशल साइट पर लिंक शेयर कर लोगों तक सच और झूठ का पुलिंदा बनाकर पेश करने लगे है. हम बता दें कि जितनी तेज गति से इंटरनेट की स्‍पीड बढ़ी है उतनी ही स्‍पीड से सोशल मीडिया के प्‍लेटफार्म पर चलने वाले चैनल भी बढ़ते जा रहे है. इतना ही नही देश के कई प्रतिष्ठित घराने भी वेब मीडिया को अच्‍छा और उम्‍दा साधन मानकर इस बाजर में उतरने लगे है.ऐसी स्थिति में श्रोता और दर्शक इस पशोपेश में है कि वह किस समाचार या खबर को गंभीरता से लेकर सच माने, इतना ही नही बिना शैक्षणिक स्‍तर के लोग इस पेशे में उतर कर झूठ को सच और सच को झूठ बताने से नही चूक रहे है., कहना गलत नही होगा कि सोशल मीडिया और इंटरनेट के माध्‍यम को प्रसारण का साधन बनाये जाने के बाद यह भी तय करना मुश्किल है कि सरकारे अपने प्रचार प्रसार के विज्ञापन देने के लिये किस स्‍तर के और किस माध्‍यम को विज्ञापन देकर प्रचार प्रसार करवाये. सोशल मीडिया के बढ़ते व्‍यवसाय के चलते सरकार को हमेशा कदम सोच समझकर रखना होता है क्‍योकि सबसे पहले और सबसे तेज गति से यदि कोई नुकसान कर सकता है तो वह सोशल मीडिया ही है.

   यदि बात पञकारिता कि होती है तो आज प्रदेश ही नही देश में वास्‍ततिक पञका‍रो की कमी है जो अपनी लेखनी से हमेशा सच और झूठ के साथ साथ देश की दिशा और दशा तय करने में अहम भूमिका अदा करते है. वैसे आज के आधुनिक युग और व्‍यवसायिक युग में पञकारो की संख्‍या इसलिये भी कम है क्‍योकि वे किसी कंपनी या कारपोरेट की नौकरी कर रहे होते है, इसलिये पञकारिता कोसो दूर रह जाती है. हम बता दे कि देश में पिछले महिनो में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले है जिनसे यह शाबित हो गया है कि देश की पञकारिता अब गणेश शंकर विधार्थी , राम मोहन राय और गांधी जी वाली नही बची है. इस लिये किसी न किसी सरकार या न्‍यायपालिका को अब पञकारिता के मापदंड तय करने के लिये कोई कदम उठाने की नितांत आवश्‍यकता है.